वो शाम
मंद-मंद बयार बह रही थी, चंद बारिश की बूंदों को अपने अन्दर सम्मलित किये।एक हाथ में चाय का प्याला लिए, पहुँच गये हम इस मनोरम दृश्य का लुफ्त उठाने।
हवा के ये झोंके हमारे बदन को स्पर्श कर, हमें हमारे अस्तितित्व का एहसास दिला रहे थे।
और हम अपनी दोनों बाहें खोल इस संपूर्ण एहसास को अपने अन्दर बटोर लेना चाहते थे,
यह जानते हुए कि हमारा ये वजूद भौतिक तो है परन्तु वास्तविक नहीं।
वास्तविकता की खोज हमें पहुँचा गयी उन बीते लम्हों में जो थे तो सुखद, पर थे बस छलावे।
होठों पर एक चिर-परिचित मुस्कान आ गयी, शायद बेबसता की निशानी रही होगी।
और तभी बारिश की एक अदनी सी बूँद हमें वर्तमान से अवगत करा गयी।
प्रश्न फिर वही था "मैं कौन हूँ ? "।
सूर्य-पृथ्वी के संगम का वह अविस्मरनीय दृश्य हमारे मानस पटल पर एक छाप छोर गया था।
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